#संघर्ष/struggle #
ये ज़माना ये ज़माना
कुछ न जाना कुछ न जाना
पत्तियों से गिरता पानी
कहता मेरी दुःख कहानी।
ये लुढ़कते हुए पत्थर
हों दफ्तरों के मेरे चक्कर
पतझड़ में यूं पेड़ सूखे
खूब सोया हूं पेट भूखे।
मैं तपता पत्थर मील का हूं
मैं कचरा कोई खील का हूं
जैसे राह तकता रहता पत्थर
मंजिल नहीं पाता है अक्सर।
सूख गया हूं झाड़ जैसा
और सफर है पहाड़ जैसा
इंसान न कोई मेरा साथी
देदे कम से कम एक लाठी।
दूर सपने जा रहे हैं
कानों में ये गा रहे हैं
रुक जा रुक जा मर न जाना
ये ज़माना ये ज़माना।
थक रुक गया ढल गई जवानी
फिज़ा की ये निर्मम रवानी
पत्तियों से गिरता पानी
कहता मेरी दुःख कहानी।।
#shaurya's poetry
कुछ न जाना कुछ न जाना
पत्तियों से गिरता पानी
कहता मेरी दुःख कहानी।
ये लुढ़कते हुए पत्थर
हों दफ्तरों के मेरे चक्कर
पतझड़ में यूं पेड़ सूखे
खूब सोया हूं पेट भूखे।
मैं तपता पत्थर मील का हूं
मैं कचरा कोई खील का हूं
जैसे राह तकता रहता पत्थर
मंजिल नहीं पाता है अक्सर।
सूख गया हूं झाड़ जैसा
और सफर है पहाड़ जैसा
इंसान न कोई मेरा साथी
देदे कम से कम एक लाठी।
दूर सपने जा रहे हैं
कानों में ये गा रहे हैं
रुक जा रुक जा मर न जाना
ये ज़माना ये ज़माना।
थक रुक गया ढल गई जवानी
फिज़ा की ये निर्मम रवानी
पत्तियों से गिरता पानी
कहता मेरी दुःख कहानी।।
#shaurya's poetry