...

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उम्मीद बहक जाने की
ताउम्र संभाल जाने में,
और टूट बिखर जाने में।
आफत में या अंधेरे में,
मिली खाक आखिरी सवेरे में।

वो जिद्द का दामन छोड़ के,
जो जीते हम बस प्यार में,
न याद में, न उम्मीद में,
न मिट जाने की आस में।

तो शायद मिल ही जाती भी,
एक उम्मीद बेहक जाने की।

न आने की, न जाने की,
न घर के दस्तरख्वान की,
एक तरंग जो रंगों का हो,
न माया की, न सांसों की,
उम्मीद बेहक जाने की।

वो घर के रूल-रसूलों की,
वो ताकतवरों की दुनिया की,
जीने को बस चाहिए,
उम्मीद बेहक जाने की।

न माने तो फिर न माने,
दुनिया और दौलत के पैमाने,
बस हम न जी हुजूरी करें,
ये दुनिया और दीवारों के,
कहे चाहे कुछ भी कोई,
हम बस अपनी मन की करें,
बस जीएं और जीने दें
उम्मीद में बेहक जाने की।

© Gautam Kumar