...

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ख़ुद का पता
कहीं थी कोई कमी कहीं था मुकम्मल जहां।
जहां था मुकम्मल जिधर ज़िंदादिल कभी ना रहा वहां।
आख़िर गिला भी क्या हो ज़िन्दगी से ज़िंदादिल।
तू रहा खोया हुआ तुझको ढूंढता रहा तेरा ख़ुदा।।
गर नाराज़ हो तुम तो कोई तुम्हें मनाता भी कहां?
तेरे रंज है किसका मुद्दा? मुद्दा है तेरा धुआं धुआं।
जान ना सके तू कहीं गर ख़ुद को भी क्या ख़ला?
अपने ही थे लकीरों का फ़लसफ़ा जो तू ख़ुद से ना मिलता यहां।
आज की बात करते चल तू होकर आफताब काफीरा।
जमीं क्या आसमां क्या तुझसे ही तू हर वक़्त रहे जुदा।
एक महफ़िल में तेरे और भला क्या गुज़ारिश हो।
लिखता जो तू ख़ुद को है मिलता कहां ख़ुद तुझे ख़ुद का पता?
© ज़िंदादिल संदीप