...

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“मेरा पुराना घर”
दरो दीवार भी अब
देखते हैं
बड़ी हैरत से
जब मैं लौट आऊँ
मुझे ये जानते हैं
या कि फ़िर ये
भूल बैठे
नज़र में सब नज़ारे
घूमते हैं
मैं ठहरूँ या
अभी ही लौट जाऊं
मेरे अहसास मुझसे
पूछते हैं
थे सब मानूस मुझसे
इस क़दर यूं
कि था लगता
ये मुझसे बोलते हैं
मैं पहरों तन्हा
रहती थी यहां पर
यही तन्हाई के
साथी मेरे थे
मगर जाना था
मुझको भी
यहां से
मुक़द्दर के
यही तो फैसले थे
है कुछ पाया तो
कुछ खोया भी
ही है
मगर खोने का
मुझ को दुख नहीं है
है बस अफ़सोस
इतना ही मुसलसल
क्यूं मुझको ये
नहीं भी
भूलते हैं

© Arshi zaib