...

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जिंदगी
वचनोसे बांधा कुछ इसकदर खुद को,
शायद उसमे ही घुट जाऊंगा,
जीवनभर कर्ण सा अधीर बन,
सुख चैन कभी न पाऊंगा,

क्या गलती हुई पता नही पर,
हर किसी का धीर बंधा बैठा,
दुसरो को संवारते संवारते,
जीवन मे खुद को गवा बैठा

जो मंगा किसीने पलभर में,
हसकर उसे मैं लुटा बैठा,
जोड़ने को चला था हर किसी को,
अब खुद ही बिखरकर मैं टूटा बैठा,

थक गया हूं, टूटा बोहोत हु,
जिंदगी तुझसे अब रूठा बोहोत हु,
उम्मीद न तुझसे अब जूझने की है,
राह अभी बस बुझने की है,

शायद बूझकर सुख पाऊंगा,
तुझसे रूठ जिंदगी,दूर चला जाऊंगा,
फिर बोलो किसे इतना सताती फ़िरोगी,
खत्म हुवा मैं तो क्या जताती फ़िरोगी।

© प्रतीक पाथरे