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हम -तुम

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तुम हो चारदीवारी के पंछी
अपनी फितरत खुला आसमाँ,
तुम हवा में भी किले बनाते
हम कागज़ों में भी जाहिल हैं।

कहाँ बड़बोले तुम सदा से
और हम ठहरे मोहर-ए-सुकूत,
ऐसा बेमेल सा ये मेल है देखो
निभना - निभाना तो मुश्किल है ।

हालात हैं एकदम अलग
और जवाब भी हैं अलग हमारे,
एक हवा के झौंके सा दाखिल -खारिज़
और एक मुस्तक़िल है।

कितने अलग हैं दोनों, फ़िर भी
एक ही नौका में सवार हैं हम,
न तुम्हारा कोई एक ठिकाना
न हमारी कोई तय मंज़िल है ।

अर्श पर बिठा मेहरबान ने
दिया है नेमतों का ज़ख़ीरा,
किस्मत का भी खेल निराला
वरना हम कहाँ इस काबिल हैं।

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© संवेदना

#कुछ_नया_कुछ_पुराना