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गद्यांश : पिता
अक्सर हम माँ की बातों को अनसुना किया करते थे।
लेकिन जब माँ कहती थी कि पापा घर पे हैं , फिर हम सारे काम कर दिया करते थे।।

यहाँ किसी संविधान कि आवश्यकता नहीं थी; गलतियों पे दंड था; स्वीकार करने पे माफी थी।
हमारे अनुशासन के लिए पापा आपकी उपस्थिति ही काफी थी।।

एक बार हमने माँ से कहा कि माँ पापा बहुत सख्त हैं।
हम जब भी उन्हें देखते हैं तो देखकर डर जाते हैं।
हम उनसे अपनी सारी बातें खुल कर नहीं कर पाते हैं।।
इसपर माँ ने कहा कि बेटा जिसमें हम सब सुरक्षित हैं;पापा वो अभेद्य गढ़ हैं।
हम सब पेड़ के जैसे हैं; तुम्हारे पापा उस पेड़ कि जड़ हैं।।

और एक आँधी आ जाए, तो सारे पेड़ मुश्किलों से घिर जाते हैं।
और बेटा जिन पेड़ों की जड़ें सख्त नहीं होतीं हैं न, वे पेड़ आँधीयों में गिर जाते हैं.......

( माँ आगे कहती है....)

उन्होंने अपने सुख चैन सब तेरे लिए खोए हैं।
उन्होंने तेरे लिए मुझसे ज्यादे सपने संजोए हैं।।
वे कुछ दिनों से बीमार हैं पर फिर भी उन्हें तेरे भेजे किताबों कि लिस्ट पूरी करनी है।
और तुझे पता है वो दवा भी नहीं ले रहे, क्योंकि इसी महीने तेरे कालेज की फीस भरनी है।।
फिर भी कहते हैं कि मेरी तबियत का क्या है वो तो अपने आप ठीक होगी।
बस तुम बेटे से कुछ मत कहना, वो यह सब सुनेगा तो उसे बहुत तकलीफ़ होगी।।

उस दिन पिता को लेकर सारे भ्रम मैंने अंदर से हटा दिए।
जब पापा को सच में जाना तो आँखों में आँसू आ गये।।
उस दिन पता चला पापा आप पानी से भी ज्यादा तरल हैं।
आप बाहर से जितने सख्त हैं; अंदर से उतने ही सरल हैं।।

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(ये मेरी सर्वप्रथम रचना है जिसे मैंने नौवीं कक्षा में लिखी थी ।।)


© 'शम्स'