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बीता बचपन...
जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं लगता है हम बचपन के बहुत क़रीब हैं। हम अपने बचपन का अनुकरण करते हैं। ज़रा देर में तुनकते हैं और ज़रा देर में ख़ुश हो उठते हैं। खिलौनों की दूकान के सामने देर तक खड़े रहते हैं।

जहाँ-जहाँ ताले लगे हैं हमारी उत्सुक आँखें जानना चाहती हैं कि वहाँ क्या होगा। सुबह हम आश्चर्य से चारों ओर देखते हैं जैसे पहली बार देख रहे हों।

हम तुरंत अपने बचपन में पहुँचना चाहते हैं। लेकिन वहाँ का कोई नक़्शा हमारे पास नहीं है। वह किसी पहेली जैसा बेहद उलझा हुआ रास्ता है अक्सर धुएँ से भरा हुआ। उसके अंत में एक गुफा है जहाँ एक राक्षस रहता है।

कभी-कभी वहाँ घर से भागा हुआ कोई लड़का छिपा होता है। वहाँ सख़्त चट्टानें और काँच के टुकड़े हैं छोटे-छोटे पैरों से आस-पास।

घर के लोग हमें बार-बार बुलाते हैं। हम उन्हें चिट्ठियाँ लिखते हैं आ रहे हैं आ रहे हैं आएँगे हम जल्दी।
© राज