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मैं लिखती हूं।।
अक्सर सोचती हूं मैं लिखना,
मगर लिखूं क्या मन में ये सवाल रहता हैं।
शायद मैं लिखना चाहती हूं दर्द,
मगर लिख देती हूं जिंदगी।
मैं लिखना तो चाहती हूं अस्थिरता,
मगर फिर लिखती हूं मन।
मैं तो लिखना चाहती हूं चुप्पी,
मगर लिख देती हूं समाज।
वो समाज जो हर गुनाह को,
देखकर भी चुप हैं।
मैं लिखना तो चाहती हूं अंधेरा,
पर मैं लिख देती हूं अकेलापन।
मैं लिखना चाहती हूं बेबसी,
मैं लिख देती हूं गरीब और गरीबी।
मैं लिखना चाहती हूं मासूम,
मगर लिख देती हूं अनाथ।
अनाथ वो जो अपने घर से हैं अनजान,
वो जो बने हैं किसी के पैसे की भूख का शिकार।
मैं तो लिखना चाहती हूं स्वार्थ,
मगर लिख देती हूं दोस्ती।
मैं तो लिखना चाहती हूं कुछ काल्पनिक,
मगर लिख देती हूं फिर वास्तविकता।
वास्तविकता जो हैं इस समाज की,
समाज में रहने वाले इंसानों की।।...

© ।। साक्षी_बर्मन।।
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शीर्षक:- मैं लिखती हूं।।
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