...

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पन्ने डायरी के
क्या देखने आए हो, उजड़ गया घरौंदा, अब तो बस कुछ दीवारे किवाड़ लिए खड़ी हैं, बहुत लगाव था न जिस दहलीज से, आज तमाशा किए बाजार खड़ी हैं
और फ़कीर बने फिरते थे जिन कोड़ियों की खातिर, समझ की आंच लिए कंकड़ पत्थर भी न पका सकी
ये जो मोतियाँ झरती है बड़े बड़े बयान लिए, अरे अब भी कोई मिलावट रहती हैं तो झर जाने दो, जो नहीं बहा था कल तक उसे भी बह जाने दो
इम्तहान देने निकला था सवालों को ही सहेज लाया, अब बोऊंगा हाल की नोक ते, नए बीये जागने को
उस आसमा के फूल को भी तो थोड़ा जलने दो, ये नर्मी बरत्ती हवाओ ने छल क्या लिया तुमको,तुम तो मुरझाने से लगे
ये दीप लिए जो खड़ा हु तुम्हरे चार कदम को, शिखरों के वायदे छोड़ो, चलोगे साथ मेरे
सुबह मुस्कुराहटों सी तो क्या ही दूंगा, तरसे हो जिस नींद के लिए एक दिन ही सही वो नींद ईनाम दूंगा
कुछ बचा न हो पाने को, फिर भी ये खेल चलेगा चलाने को,
और निहारूंग तुम्हरी ओर, चले आना फिर से घरौंदा बसने को।

~शिवम् पाल



© शिवम् पाल