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पन्ने डायरी के
क्या देखने आए हो, उजड़ गया घरौंदा, अब तो बस कुछ दीवारे किवाड़ लिए खड़ी हैं, बहुत लगाव था न जिस दहलीज से, आज तमाशा किए बाजार खड़ी हैं
और फ़कीर बने फिरते थे जिन कोड़ियों की खातिर, समझ की आंच लिए कंकड़ पत्थर भी न पका सकी
ये जो मोतियाँ झरती है बड़े बड़े बयान लिए, अरे अब भी कोई मिलावट रहती हैं तो झर जाने दो, जो नहीं बहा था कल तक उसे भी बह...