...

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रूपाजिवा - एक अनोखी दास्तां
' भूल बैठी हूं मैं अपना घर आंगन
छूट गया है
दूर कहीं मेरा बचपन ,
वो सहेलियां बहुत याद आती है
वो बिछड़ी हुई जिंदगानी बहुत सताती है ,


मां की लोरी पिताजी का प्यार
बिखर गया मेरा परिवार ,
भाई बहन के साथ मैंने हज़ारों सपने सजाए थे
एक नामी वकील बनने के अरमान दिल में जगाए थे ,

समय ने भी अपने चक्र को कुछ यूं घुमाया ,
एक आंधी ने मेरा परिवार छीन कर दिखाया , कर दिया अनाथ और वो ख़ूब मुस्कुराया ,
मेरी किस्मत ने भी क्या खेल खिलाया ....

भटकती रही दरबदर एक छांव की आस में ,
भूख प्यास भूल बैठी अपनों की तलाश में ,
हर दर ठोकर खाकर फंस गई मैं एक दल दल में ,
बिकता था जहां दर्द और आसूं पल पल में ......

सौदागरों की बस्ती ने मुझे भी अपनाया था ,
दे कर नाम " कंचनी " मुझे बुलाया था ,
रूप रंग और सौंदर्य ने मेरे बहुत रुलाया था ,
जब कच्ची उम्र में अपने जिस्म का सौदा लगाया था ,

कमरे की चार दिवारी में चीखें कैद हो...