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कान्हा और प्रेम
कान्हा और प्रेम की अलौकिकता को दर्शायें ऐसी कोई परिभाषा नहीं
त्याग और समर्पण की पराकष्ठा का बखान करे ऐसे वर्ण की भाषा नहीं

नीति संग मति को रख हर दिन दिल तड़प कर प्रेम करता वो जगत कर्ता
स्वयं ईश्वर प्रेम को हासिल नही महसूस करता रहे ऐसी अब अभिलाषा नही

साक्षात रूप जिनका प्रेम ही प्रेम है लेक़िन विधी की परछाई से बचे नही
कैसे और किस वर्ण को अभिव्यक्त करू कान्हा के प्रेम सी कही भी तृषा नही

प्रेम को पाने में नही प्रेम को महसूस कर अमर बनाने की रीत है जिनकी
उस सर्वश्रेष्ठ अमर प्रेम को शब्दों में पिरोने की शायद ही किसीकी आकांक्षा नहीं

" शीतल " प्रेम हॄदय में निरंतर रूप में हैं जिनके वे स्वयं अनंत में अंत नहीं
कान्हा और प्रेम का संगम ही निराला ऐसे प्रेम को समझने की कोई सीमित रेषा नहीं