जब वो मानूस बन कर मेरी ज़िंदगी में आए थे
जब वो मानूस बन कर मेरी ज़िंदगी में आए थे
ख़ामोश पड़े हुए जिस्म के पुर्जे हरकत में आए थे
कभी खुशियों के ख़्वाबों ख़्यालों में डूबे रहते थे हम
आज ग़म भी खुद चल कर मेरी मय्यत पर आए थे
दिख रही थी कफ़न से छाकती हुई वो ऑंखें मेरी
फिर क्यों ख़्वाब तुमने मेरी ऑंखों को हज़ार दिखाए थे
ठीक कहते थे मोहल्ले के हर एक बड़े बुजुर्ग हमसे
इतना क्यों मुस्कुराते हो क्या ग़म है जो तुमने छुपाए थे
ठोकरें खाते खाते भी न संभल पाए थे हम "हिना"
मायूस थे तेरे फैसलों से फिर भी सजदे में सर झुकाए थे
© Hina