...

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मैं तुम्हें पढ़ना चाहती हूं
शीर्षक- तुम्हें पढ़ना चाहती हूँ



शब्दों से मूरत तेरी गढ़ना चाहती हूं
अर्थ बना तुझे ही समझना चाहती हूं
मैं तुम्हें पढ़ना चाहती हूं
खुले आसमां तरह तुम छाए हो मुझपे
मैं चादर बन तुझसे लिपटना चाहती हूं
मैं तुम्हें पढ़ना चाहती हूं
उमड़ती घटा जो सिरहन समान गिरती है
बूंद बन तुम्हारे बदन में सिमटना चाहती हूं
मैं तुम्हें पढ़ना चाहती हूं
तुम धरा की तरह बिछे हो जहां में
मैं नीर बन तुझमें रिसना चाहती हूं
मैं तुझे पढ़ना चाहती हूं
साग़र की लहरों संग जो सबको रिझाते हो
कश्ती बन तुझमें अस्त हो जाना चाहती हूं
मैं तुझे पढ़ना चाहती हूं...।।




स्वरचित मौलिक रचना
नेहा यादव
© नेहकिताब