...

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अटरिया...!!!
निस दिन खेलत रहि सखीयन संग मोहि बड़ा डर लागे
मोरे साहब कि ऊंची अटरिया चड़त मैं जियरा कापे
जो सुख चहैं तो लज्जा त्यागे पियासे हिलमिल लागे
घूंघट खोल अंग भर भेटे नैन आरती साजे
कहे कबीर सुनो सखी मोरो प्रेम होय सौ जानें
जिस प्रीतम की आस नही है नाहक काजर पारे...!!!!!

मैं तो दिन रात अपनी सखियों के साथ खेलती थी और अब मुझे बडा डर लग रहा है
मेरे साहब की अटारी बहुत ऊंची हैं
और उसपर चढ़ते हुए बड़ा जी कापता हैं
लेकीन प्रेम का तकाज़ा कुछ और ही है
( सुख प्रणय सुख ) के लिए लाज छोड़नी होगी मैं पिया से घुल मिल जाऊंगी घूंघट हटा कर उसे अंग भर लिपटा लूंगा और आखें आरती उतारेगी

आगे की line part 2 मैं
© lotus