...

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कुछ अनकही ...
मां ! आपसे सीखा है, मैंने जिंदगी का ये सलीखा
अपने चाहतों को रौंध, दूसरों के लिए जीना
मां ! खुद तकलीफ में रहती हो
फिर भी सबकी कितनी परवाह करती हो

मां ! आपने बेटी से बहु फिर मां तक का
ये लंबा सफ़र तय करा है
कई सारे उतार चढाव जीवन में देखे है
तभी तो मुझे दुनियां के रंगों में ढलने को कहती हो
लेकिन दिमाग़ खुराफाती करना चाहता
मेरा मन भी अपनी मनमानी
अब क्या करू ? मैं हूं बहुत बचकानी
लिए समझ का समंदर,करती रहती नादानी

मुझमें अक्ल थोड़ी कम है
तभी तो उच्ची आवाज़ में बातें कर
आंखें आपकी कर देती नम हूं
पर सच कलेजा मेरा भी फटता है
जब आपके आंखों में आसूं व
चेहरे पर मायूसी दिखता है
क्या करूं ? मुझमें आपसा संयम नहीं
आप जितना करती हो
उसका इक कतरा भी मुझमें नहीं

बात बात में बहस कर लेती हूं
चाहती हूं किसी को दुख न पहुंचे मेरे वज़ह से
लेकिन रहता गुस्से पर अपने काबू नहीं
क्या करूं ? मुझमें धैर्य नहीं
जब मैं रूठ जाती हूं
तो सबसे पहले खाना पीना छोड़
किसी से बातें नहीं करती
जानती हो आप की गुस्सें में
मेरा खुद पर बस नहीं चलता
फिर भी मनाने आती हो
जब तक खाना न खाऊं
मेरी फिजूल सी बातें भी सुन लेती हो

मां ! जैसे आप नए रिश्तों में ढल गई हो
सभी की खिदमत में हमेशा हाज़िर रहती हो
कैसे ? मैं ये सब कर पाऊंगी
मुझमें तो सब्र ही नहीं
ये सब मुझसें नहीं हो पायेगा

मां ! मेरी गलतियों को नजरंदाज कर
जिस तरह आप और पापा मेरी परवाह करती हो
मेरी हर चाहत का ख्याल रखती हो
कोई और नहीं कर सकेगा
आप दोनों सा कोई और न हो सकेगा
कैसे फिर मुझे पराई कर दोगी
अपने अंश को खुद से जुदा कर
क्या आप रह पाओगे

मैं ये नहीं कह रही की
शादी सही या गलत है
बस ये सबके लिए नहीं है

© ehsaas__e__jazbaat