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जिस्म रूह दिल
जिस्म की चालाकी देखो
रूह को दिल का झांसा देकर
इश्क़ का फ़रेब रचता है
वहीं दूजा जिस्म भी यूँही
रूह की आड़ में छिपकर
दिल दाँव पे रखता है

ये दिल भी नादां बच्चों जैसे
खुद को तन का भाग समझकर
भाग्यों को मिलवाते हैं
किसी अनामिका के आने से
धड़कन के तार को झंकृत कर
इक-दूजे में बस जाते हैं

इस जिस्म का कोई चरित्र नहीं
इन्द्रियों का सुख भोग करके
किसी और पे जा टिकता है
सोने-चाँदी के बाज़ारों में
सच्चे भावों का अरमान
माटी के मोल ही बिकता है

न जाने कितनों का दुनिया में
भोला-भाला फुसलाया दिल
यूँ टूटता है, फिर जुड़ता है
जिस्म का मदिरापान कर
जिस्म समक्ष ही बेहोशी में
बिना संघर्ष के झुकता है

जिस्म की साजिश पढ़ने वाले
हर चाल समझने वाले
दिल को रूह का मित्र बनाकर
तन्हाई में जलते हैं
बस एक हमराही की तलाश में
कोसों रोज़ भटकते हैं

इनके दिलों में झाँको, देखो
घनघोर तिमिर में इक शमा
वालदेन के प्रेम की जली है
जिस्मों से बनी इस कौम में
इंसां की जज़्बाती इंसानियत
सिर्फ इनकी रूहों में बची है ।


© AbhinavUpadhyayPoet