...

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ग़ज़ल
फ़लक पर पाँव धरने लग गए हैं
हवा से बात करने लग गए हैं

जो करते रहते थे हिम्मत की बातें
वो एक आहट से डरने लगे गए हैं

बुराई में कटी जिनकी जवानी
बुढ़ापे में सुधरने लग गए हैं

हटा है जब से सर से माँ का साया
तभी से हम बिखरने लग गए हैं

बताओ दर्द न अपना किसी को
यहाँ एहसास मरने लग गए हैं

हमारी चाय ठंडी हो रही है
ग़ज़ल में शेर भरने लग गए हैं

डुबाया खुद को जब से शायरी में
लगा जैसे उभरने लग गए हैं

© ✍︎ 𝐀𝐪𝐢𝐛