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कोरोना...


कैसी मुश्किल घड़ी ये आई है,
जिसने हर तरफ हाहाकार मचाई है,
ना गुंहार सुनने वाला आसमान है,
ना पुकार लगाने को बच रहा इंसान है,
जाने कहाँ से शुरू हुआ कहाँ तक जाएगा,
जाने किसके हिस्से का पाप कौन निभाएगा,
शुन्य सा हृदय है सबका,
हर मन में एक नया सवाल है,
कोई कहता इंसान नहीं अपने कब्ज़े में,
इसलिए बिखरा हुआ संसार है,
कोई कहता कुदरत भी थक गई सहते सहते,
उसके क्रोध का ये परिणाम है,
होगई दुनिया ख़ाली जिन अपनों को खो के,
ना लौटेंगे कभी वापस, क्या होगा अब रो के,
फ़िर भी आधी दुनिया खोई हुई है,
मलमल के चादर में सोई हुई है,
बोर होगए है घर में रहकर,
शिकायतें करना बहुत आम है,
फ़िर चल दिए खा-पी कर सोने,
क्यूंकि बच गया बस इतना सा काम है,
ज़रा पूछो उनसे जिनके सर पे छाओं नहीं,
और अब लौटने को बचा गाओं नहीं,
बाहर ना जाना कोरोना खा जाएगा,
अंदर मची भूंख की मार से कौन सा तू बच पाएगा,
बचाना है इस वक़्त तो इंसानियत को बचाओ,
बाहर नहीं अपने भीतर बदलाव लाओ,
माना मुश्किल है घड़ी कुछ नहीं हाँथ में,
छूट गए है जो पीछे ले लेते है उन्हें साथ में,
कुछ रिश्ते कश्मकश में भूल गए थे,
आज उनको भी अपनी याद दिलाएं,
एक छोटी सी बात पे जो रूठ गए है,
चलो उन्हें भी फ़िर से मनाएं,
अपना पेट भरने को बहुत कमाया,
चलो दो रोटी की ख़ुशी से खुद का पेट भर आएं,
पल भर के लिए दुनिया दारी सब भूल के,
चलो एक हसीं एक दुआ अपने भी घर ले आएं….