धीरे-धीरे! दास्तान ज़िंदगी की
© Shivani Srivastava
ठोकर खाकर क़दम लड़खड़ाए बहुत,मगर हम संभलते रहे धीरे धीरे..
लगता क्या ही बचा ज़िंदगी में मगर,ये मंज़र बदलते रहे धीरे धीरे।
आहत होते तो लगता कि जी न सकेंगे,पर क्रम सांसों के चलते रहे धीरे धीरे..
जिजीविषा भी कभी कभी मर सी गई,पर दीप आशा के जलते रहे धीरे...
ठोकर खाकर क़दम लड़खड़ाए बहुत,मगर हम संभलते रहे धीरे धीरे..
लगता क्या ही बचा ज़िंदगी में मगर,ये मंज़र बदलते रहे धीरे धीरे।
आहत होते तो लगता कि जी न सकेंगे,पर क्रम सांसों के चलते रहे धीरे धीरे..
जिजीविषा भी कभी कभी मर सी गई,पर दीप आशा के जलते रहे धीरे...