...

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मेरी रेल सुबह


सुबह सुबह के बेला मे,
ट्रैन मे बैठा मै देख रहा,
टिकट वाला दुबका है,
बेटिकट वाला ऐंठ रहा!

दीदी - भाभी सजधज कर,
शायद मायके जा रही हैं,
एक अटैची लिए हाथ में,
मंद मंद मुस्कुरा रही हैं!

नये नये मोबाइल मे बिजी,
चाचा मुछ में ताव दे रहे हैं,
बच्चे अपनी सीट छोड़,
दूसरों को भाव दे रहें हैं,

सूरज की किरणे खिड़की से,
धीरे-धीरे से मुश्काती है,
चाय-चाय की कर्कश आवाज भी ,
कानो को सुकून दे जाती है!

सफाई चारो ओर दिखती है,
ट्रैन अब चलने वाली है,
मैल वीर भी है यहाँ हैं पधारे,
सफाई जल्द हाथ मलने वाली है!

जिन जूतों को घर मे आने न देते,
वो ऊपर पंखे की शोभा बढ़ा रहे हैं,
सर का ताज बनकर अपनी खुशबू,
चारो ओर सीना तान फैला रहे हैं!

कभी सीधे तो कभी टेढ़े-मेढ़े,
पैसे मांगने वालों का है दरबार लगा,
शायद इन्हे भी किसी अपने सगे,
दल प्रिय नेता ने है दिल से ठगा!

हर सीट के निचे नbजाने,
कितने बारात का सामान है,
सब चुप चाप कष्ट सह जायेंगे,
मानवता का यही फरमान है!

जैसे जैसे समय बीत रहा,
बाथरूम की खुसबू आने लगी है,
अपनी अस्मिता बचाने को शायद,
वो बेचारी भी छटपटाने लगी है!

कुछ घंटो के बाद सब,
अपनी मंजिल को पाएंगे,
ट्रैन की बैंड बजा बजा कर,
दूसरों पर गाज गिराएंगे!

ये खट्टा - मीठा अनुभव,
हर यात्रा में दिख जाता है,
शरीफ आम आदमी,
लाख ठगे जाने के बाद भी,
हमेशा मुश्कुराता है,
हमेशा मुश्कुराता है!

© RamKumarSingh(राम्या)(22-05-2023)