"जब चांद छिपा बादल में..!!
जब चांद छिपा बादल में..!
चमक हो गई उनकी आँचल में..!!
डूब गया मेरा मन..!
उनके प्रेम सरोवर में..!!
छिपकर देखती मेरी नजर..!
प्रेम रस पीने को..!!
निर्भर हुआ मैं उनपर..!
सम्मुख बाते करने को..!!
बादल के छाँव ..!
उनके कुन्तल पर बिखरे..!!
लग रही वो, जैसे अम्बर की मलिका..!
देखते रहे गए हम, वो थी कलिका..!!
उस दिन करते थे पंछी कल- कल..!
रंगीन सांझ ढल रही थी..!!
जुगूनुओ की बरात सज कर आई..!
वो मन ही मन मुस्कुरा रही थी..!!
ओस की बूंदों में कलित होकर..!
उनके कुन्तल पर जम गई..!!
रजत की मूरत लग रही थी वो..!
जैसे हाट से निकल कर आई..!!
चंचल थी वो कनक किरणों में..!
अतिसोभित लग रही थी..!!
मुझे तो पाने की अभिलाषा थी ..!
पर वो किसी और की हो गई थी...!!!
मनोज कुमार
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