...

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मिट्टी में मिलता पाया
एक दिन जो, सो के जागा
सब कुछ था बदला पाया
मिट्टी के तन को मैंने
मिट्टी में मिलता पाया
ये हाथ भी थी मिट्टी
ये ऑंख भी थी मिट्टी
सब कुछ यहीं था पाया
सब कुछ यहीं गवाया
कुछ ऑह भर रहे थे
कुछ याद कर रहे थे
उसने कहा था अपना
कुछ ने कहा पराया
मैंने ऑंख थी न खोली
मेरी जीभ भी न बोली
मैंने साथ ख़ूब निभाया
चाहे अपना या पराया
कहने को मेरे अपने
मातम मना रहे थे
मुझे मोह से छुड़ाने
मेरी बारात ला रहे थे
शिवेन्द्र सिंह सोनू