...

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मैं और नदीयाँ
पहाड़ों के आलिंगन से निकल कर
उसकी निष्टुरता की जकड़न से होती हुई
ख़ुद की सारी मर्यादाएं तोड़कर
जिसकी नियति टूटना है..
एक प्रेयसी
अपनी देह में सिहरन दौड़ाती
पर्वतों के कंधे से छूटकर
प्राकृतिक,उन्मुक्त,भावविभोर
स्वयं की आख़री बूंद तक निचोड़कर
शिला की हर सीमाएं लांघे
सुरज की केसरिया लाली से सज्ज
जब बंजारों का संगीत सुनाती हुई
अपने प्रियतम को मिलने
पहाड़ों से निकलती है
वो पर्वतों से छूटती हुई
फुट फूट कर रो पड़ती हैं,
उसकी अधमरी देह समुद्र में विलीन होने से
पहले एकदम शांत बहती है
और आगे जा कर शांति से समुद्र में समा जाती है,
तब प्रतित होता है की
समुद्र का सारा खारापन उसकी प्रेयसी के अश्रु हैं
जैसे मेरी अधमरी रूह अब शांत है
मेरी आंखों का सारा नमक
अब भौंहों तक आ चुका है,
उस पर शब्दों की मछलियां अब तैरती नहीं,
ना कोई स्वपन की नाव चल रही
मन के पर्वतों से निकलकर
ख़ुद को तोड़कर, अपनी अभिलाषाओं के बीच
टूटती, कराहती, शांत बस
निकल चुकी है.. तुम्हारे पास आने के लिए
तुम में समा ने के लिए...

© Mishty_miss_tea