मैं और नदीयाँ
पहाड़ों के आलिंगन से निकल कर
उसकी निष्टुरता की जकड़न से होती हुई
ख़ुद की सारी मर्यादाएं तोड़कर
जिसकी नियति टूटना है..
एक प्रेयसी
अपनी देह में सिहरन दौड़ाती
पर्वतों के कंधे से छूटकर
प्राकृतिक,उन्मुक्त,भावविभोर
स्वयं की आख़री बूंद तक निचोड़कर
शिला की हर सीमाएं लांघे
सुरज की केसरिया लाली से सज्ज
जब बंजारों का संगीत सुनाती हुई
अपने प्रियतम को मिलने...
उसकी निष्टुरता की जकड़न से होती हुई
ख़ुद की सारी मर्यादाएं तोड़कर
जिसकी नियति टूटना है..
एक प्रेयसी
अपनी देह में सिहरन दौड़ाती
पर्वतों के कंधे से छूटकर
प्राकृतिक,उन्मुक्त,भावविभोर
स्वयं की आख़री बूंद तक निचोड़कर
शिला की हर सीमाएं लांघे
सुरज की केसरिया लाली से सज्ज
जब बंजारों का संगीत सुनाती हुई
अपने प्रियतम को मिलने...