...

8 views

ग़ज़ल
ग़म-ए-ज़िन्दगी के हसीं जब सितम देखते हैं
कभी मुश्किलें तो कभी ख़ुद का दम देखते हैं

रह-ए-हक़ पे बेख़ौफ़ चलते रहे हम हमेशा
कहाँ हौसले झूठी राहों के ख़म देखते हैं

मुहब्बत में कैसा अजब हाल होने लगा है
नज़ारा कोई हो मगर तुमको हम देखते हैं

चलाते हैं अक्सर उसी पर सभी ज़ोर अपना
ये जब नर्म दिल का कोई मोहतरम देखते हैं

लबों की हँसी से बहलते सभी हैं मगर कब
हमारी उदासी ख़मोशी अलम देखते हैं

फ़लक छूने की चाहतों में ये देखा है अक्सर
ज़मीं की तरफ़ फिर ये सब लोग कम देखते हैं

सियासत मुहब्बत इबादत लिखे बेवफ़ाई
'प्रिया' हर्फ़ तेरे मता-ए-क़लम देखते हैं