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खिड़की - एक प्रेम कथा❤
मेरी खिड़की से दिखता है घर उसका,
एक टक टिकी रहती मेरी नजर है,
जरा कदम भी रखे जमीन पर वो,
होती हृदय में मेरे हलचल है,
बालकनी पर जब जिम वो करता है,
हाय! कैसे कहूं बस नहीं दिल पर तब चलता है,
खुद को रोक नहीं पाती हूं,
देखने को करीब से तुझे मैं,
खिड़की पर टेलिस्कोप लगाती हूं,
करीब जानकर तुझे मैं अपने,
बार बार खिड़की से लिपट जाती हूं,
अब लोग कहेंगे शरम करो...
इन बातों से भी नहीं रुक पाती हूं,
कई दफा खिड़की से तुझ संग,
ब्रेकफास्ट, लंच, डिनर, कर लेती हूं,
समझकर डेट इसे मैं अपनी,
थोड़ा खुश होकर नाच भी लेती हूं,
अब तुम कहोगे पागल हो तुम...!!
आखिर हर्ज ही क्या है इसमें भला,
खिड़की से तुमसे इश्क़ फरमाने में..?
ना डर इसमें जमाने का मुझे,
ना रोना पड़ेगा तेरे छोड़ जाने में,
ख़ैर, एक दिन वो भी आया,
घर के आगे के प्लॉट पर,
घर किसी ने अपना बनाया,
कुछ दिन तो ऊचक ऊचक कर देखा,
फिर खिड़की का रास्ता ब्लॉग हो गया,
हर्षित मेरे मन में जाने ये,
कैसा डार्क सा मौसम हो गया,
अब हार्टब्रिक, का दुख तो था ही,
मेरा रोना शुरू हो गया,
मेरी इस छोटी सी प्रेम कथा का,
अंत खिड़की तक में ही हो गया,
काफी दिन ना भूख ही लगी,
नींद का भी घर चेंज हो गया,
कुछ दिन चला ये सिलसिला मेरा,
फिर खिड़की से नया इश्क़ शुरू हो गया।