...

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रिहाई
इन काले गहरे सन्नाटों में,
कोई बात बाहर आती नहीं,
मेरी धीमी सी सिसक के सिवा,
कोई आवाज़ सुनाई देती नहीं।

मैं ज़हन में चिल्लाऊं भी,
तो लबों तक बात लाऊं कैसे?
यहाँ दूर दूर तक नहीं है कोई,
इस खालीपन से दूर जाऊं कैसे?

चाहे रात की काली स्याही हो,
या दिन का रौशन उजाला,
मेरे मन की फ़ैली ज़ंजीरों ने,
मुझे ही क़ैद कर डाला।

मैं खुद से रोज़ लड़ता हूँ,
न जाने कब ख़त्म ये लड़ाई होगी?
मैं खुद ही अपना क़ैदी हूँ,
न जाने कब मेरी रिहाई होगी?

© Musafir