...

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समझे बिना वफ़ा करना ही इश्क़ का गुरूर है
एक दूजे को समझना इश्क का दस्तूर है
समझने से जो किया जाए वो फितूर है

ख़्वाब, ख़्याल, अहसास लाज़मी होने लगे
ख़्याल महबूब का होना ही फिर बदस्तूर है

रात, रानाइयां और वस्ल के अम्कानात भी
मुम्किन नज़र आते हैं मगर वो होते दूर हैं

जिधर भी देखूं_ बस तुम ही तुम दिखते हो
लगता है अब चाहत में ये दिल चूर ही चूर है

तुम हंसो तो खिल उठती है फिज़ा की रंगत
मुरझाने से उदास होता हूं, वो ऐसी ही हूर है

चाहत की इंतिहा समझने पर ही मौकूफ नहीं
समझे बिना वफ़ा करना ही इश्क़ का गुरूर है

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© Zulqar-Nain Haider Ali Khan