बेताल फुर्र
"धरती की कोख की भांति,
ऐसे संभाला है ख़ुद को की
जैसे मेरे वचन, अडिग!, अविचल !"
"ना भीतर की कंपन,
न वह अग्नि प्रज्जवलित करता पर्वत पाओ ,
तब होते तुम कैसे भू-तल ?,......"
"जो...
ऐसे संभाला है ख़ुद को की
जैसे मेरे वचन, अडिग!, अविचल !"
"ना भीतर की कंपन,
न वह अग्नि प्रज्जवलित करता पर्वत पाओ ,
तब होते तुम कैसे भू-तल ?,......"
"जो...