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कहानी बेटी की••••
नन्ही सी कली थी आंगन की,पग की पैजनी छनकाती थी
श्रृंगार सज़ा कर मुखड़े पर ,वो शर्माती बलखाती थी
कभी रोटी थी कभी हँसती थी कभी मध्य रात वो जगाती थी
कोमल मन मुख सज्जित करके पिताजी कहके बुलाती थी
रोती तो चुप ना होती थी हँसती तो सबको हँसाती थी
अपनी प्यारी मुस्कानों से वो सबका मन बहलाती थी
तन कोमल पुष्प के जैसा था मन सरल भाव शर्माती थी
तनया थी बनी वो माता की पिता की राज दुलारी थी
हो जाऊं उससे रुष्ठ कभी नैनो में नीर भर लाती थी
गोदी में बैठे शाशन से मीठे बातों में लुभाती थी
यह प्रीत बनी कुछ दिन के लिए जो उम्र मुझे बतलाती थी
है फूल वो अपने उपवन की दुनिया मुझको समझाती थी
थी सिर्फ कली मन उपवन की माँ का साहस बनजाती थी
थक जाता कभी मैं रूक जाता लाठी बन साथ निभाती थी
बचकर संसार के काटों से कर्तव्य को पूर्ण निभाती थी
जग के अंधेरों में जलकर मन को रोशन कर जाती थी
बस गई अलग दुनियां उसकी जो एक छड़ दूर ना जाती थी
है निशा के ढलते भोर भई कोमल मुख से वो जगाती थी
कैसे कर दूं अनजान उसे जिसमे थी मेरी जान बसी
कैसे तोड़ू उस रिश्ते को जो जन्म सिद्ध से बनाई थी
चाहूँ पर उसे ना रोक सकूँ जो मेरी बिटिया रानी थी
बेटी होती है पराया धन जग जन की यही ज़ुबानी थी
जीवन अब जैसे खत्म हुआ बेटी की यही कहानी थी
है ईश्वर बेटी के खातिर क्यों ऐसी रीति बनानी थी


© Roshanmishra_Official