...

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न जाने

न जाने ये जरूरतें कब ख़त्म होगी....
कोई ख़्वाब देख नींद में ही मुस्कुरा दू वो रात कब होगी...

जिम्मेदारियों से पर्दा नहीं हैं, पर जीना चाहता खुद के लिए एक दिन , न जाने उस दिन सहर कब होगी...

अजब जंग छिड़ी हैं खुद से , दिल खुद का ही तोड़ देता हूँ
हज़ार सवाल नोंचते हैं रोजाना, न जाने जवाबों से मुलाकात कब होगी..

काश मैं जानवर ही होता....
तब सिर्फ भूक और प्यास से वास्ता होता,
इंसानी दौड़ में कैद हैं जिंदगी , न जाने रूह कब आज़ाद होगी...

©sandeep_kadam


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