...

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वक्त
रूबरू हो जाते है शराफत के मोखोटे से ,
दिखते है निकलते जब शरीफ कोठे से।

सुबह-शाम धन-दौलत के लिए रहें भागते,
सब हवा हो जाता है वक्त के एक झोंके से।

बूरे वक्त में रहा खड़ा वो जो चट्टान बनकर,
अक्सर टूट जाता है किसी अपने के धोखे से।

लाख कर लो चाहे घर के खिड़की-दरवा़जे बंद,
दुनिया देख लेती है कमियाँ महज़ झरोंखे से ।

'ज़िआ' पिघल जाती है यारी वक्त की आग में,
यारी रख बस उस डमरू वाले यार अनोखे से।
© zia