...

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आख़िरत
मेरे जज़्बात थोड़े थम से गए हैं,
अकेलेपन में थोड़ा जम से गए हैं।
अक्सर खुद को अकेला पाता हूं मैं,
और अपने खयालों में खो सा जाता हूं मैं।
अस्तित्व के उठते गहरे सवाल,
और मन में मचता एक बवाल।
मेरे होने का यकीन टूट सा गया है,
"मैं कौन हूं" का रास्ता अब छूट सा गया है।
कोई कुछ कहने को मिलता नहीं,
और बाहर किसी को मैं दिखता नहीं।
अपने बनाए खुद के घेरे में,
खो गया है मेरा अक्स अंधेरे में।
कोई तो थोड़ी मुझे दुआ दे,
मेरे खोए अक्स से मुझे मिला दे।
कौन जाने कल कब आख़िरत हो,
और मन मेरा अधूरा ही रुकसत हो।।
© Musafir