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प्रेम विवाद
#चाँदसमुद्रसंवाद

समुद्र:—
सारा दिन दूरदेश रह विरह पीड़ में तड़पाते हो
विश्वव सभी को शीतल करके, मुझे ही क्यों यूं जलाते हो?
केवल छः पहर साथ रहके मन मेरा बहलाते हो
माना तुम्हारा फर्ज़ है ये,
पर मेरे प्रेम के प्रति अपना फर्ज़ क्यों न निभाते हो?

चंद्र:—
प्रिय! हृदय मेरी की बात ज़रा समझो
रोज़ सारा पहर चलते चलते
भले बहुत थक जाता हूं,
पर इंकार न करो इस बात मेरी से
भागते भागते, रोज़ रात्रि, केवल तुम्हे ही मिलने आता हूं।

समुद्र:—
इंकार नही करती, आहें हूं भरती
जानू मैं सबके प्रेम का कर्ज़ है तुमपे
पर मेरी तपस्या का कर्ज़ क्यों नही चुकाते हो?
दूरी इतनी के तुम तक पहुंच न स्कू,
और तुम हर सात दिन के बाद ही मुझे अपने गले लगाते हो।

चंद्र:—
कर्ज़ प्रेम का प्रेमी चुकाए
संदेह, प्रेम से दूर कराए
तपस्या फल हमारा...