...

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निःशब्द हो जाता हूं मैं
निःशब्द हो जाता हूं मैं
जब देखता हूं दो घड़ी की रोटी के लिये
इतनी मेहनत करते हुए पिता को
जो चन्द रोटी के लिये मेहनत का पसीना गिराता है
उसके तन से टपकते हुए वो पसीने के बूंद
तय करते हैं घर के खर्चे
जो विना कुछ खायें चला जाता हैं काम पर
खाली पेट खींचता है रिक्शा या चलाता है खेतों में हल
मैंने कई पिता तो ऐसे देखें है
जो करते हैं चाकरी मजदूरी
कभी कभी तो उनको खरी खोटी सुना देते हैं लोग
वो चुपचाप डरा सहमा पिता
अक्सर उनकी प्रताड़ना को सहता है
वो रहता है चुप इसलिए शायद डर है उसे मजदूरी न चले जाने का
मैं सोचता हूं अक्सर अपने मां के भी बारे में
जो जलाती है चूल्हा और पकाती है रोटियां
सच कहूं तो कभी कभी लगता है
वो पिता जी के खून पसीने का क़र्ज़ उतार रही है
इक इक चपाती वो ज्यों ही थाली में डाल रही है
दिनभर की मेहनत झलकती है मेरे माता-पिता में
निःशब्द हो जाता हूं मैं
जब दो घड़ी की रोटी के लिये इतनी मेहनत करते हुए पिता को देखकर

© ajay_bairagi