...

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ग़ज़ल
ख़ुद अपनी ज़ात से ही हम लिपट के बैठे हैं
तेरे फ़िराक़ में दुनिया से कट के बैठे हैं

यहॉं से अब कहीं भी जाने की सकत ही नहीं
हमारी क़ब्र से वो क्यूँ लिपट के बैठे हैं

हमें तो सिर्फ़ तेरा नाम लेना आता है
बस एक कलमा यही है जो रट के बैठे हैं

मेरे वजूद की तकमील के लिए पुर्ज़े
किसी वुजूद-ए-मुकम्मल से कट के बैठे हैं

मेरे रक़ीबों का आपस में प्यार तो देखो
उस एक दिल में ये नादान सट के बैठे हैं

उदासी, सिगरेटें, तन्हाई और तेरी यादें
हम अपनी टीम तो पहले से बट के बैठे हैं

© Rehan Mirza