...

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एक खिड़की
एक मोड़ पर एक खिड़की दिखती थी
जो मुझे देख कर रोज हस्ती थी

गुज़रू कभी यूही बहाने से
तो मुझे देख कर खुलती थी

कभी सुनी नहीं उसकी आवाज़ मैंने
पर हवा ओ में बस उसकी आहट बेहती थी

अंजान था में उसके चेहरे से
पर वो मेरी परचाई तक पहचान लेती थी

बेखबर थे इश्क से हम
पर आज अंजान खिड़की से मोहब्बत कर ली थी

एक दिन बंद दिखी
तो जाने जैसे सासे थम गई थी

इश्क के मुलाजिम तो हो गए
पर इश्क की बात अभी अधूरी थी

जो देती थी इश्क की हिदायत हमें
आज यूही बेगानी हो गयी थी

सोचा इश्क नहीं अपने नसीब में
तो इश्क की ख्वाहिश वही दफन कर दी थी

माना वो खिड़की फिर कभी खुली नही
पर हा ,
एक मोड़ पर एक खिड़की दिखती थी
जो मुझे देख कर रोज हस्ती थी ।


© pain.in.pain_2211