जख़्म-ए-पिन्हाँ
"बाद जाने के उनके दिल दुकाँ हो गया,
समझा तलबगार ,शो'ला फिशाँ हो गया।
थम गयी है नब्ज साँसो को उलझाए,
जब से बहर-ए-मुहब्बत कताँ हो गया।
अश़्क बहाने लगी है चश्म-ए-करम,
हमनवाँ क्यों पल में खिजाँ हो गया।
ग़ालिबान घुटन है...
समझा तलबगार ,शो'ला फिशाँ हो गया।
थम गयी है नब्ज साँसो को उलझाए,
जब से बहर-ए-मुहब्बत कताँ हो गया।
अश़्क बहाने लगी है चश्म-ए-करम,
हमनवाँ क्यों पल में खिजाँ हो गया।
ग़ालिबान घुटन है...