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समझ...
समझ !
क्या होती है समझ?
मैं या हम...
ज्यादा या कम...
उचित या अनुचित...
अज्ञात या परिचित....
कुछ तो है इस शब्द का पर्याय
क्षमता से विकसित एक विवेकपूर्ण निकाय
हर प्रश्न का उत्तर ...समझ में ही है समाया
मन ही है विचलित...जो जान न पाया
समय लगता है बातों को सुलझाने में
फर्क होता है समझने और अनदेखा कर जाने में
हर राह नहीं दिखती,आसमान की ऊंचाईयों से
जानिए अपनों को,उनके हृदय के गहराइयों से
कीजिए कोशिश सुन पाने की,उनकी अनकही बातें
जो वो कहना तो चाहते हैं,पर कह नही पाते
कुछ स्वयं भी यदि हम करें विचार
समझने की ,उनकी उलझनें दो चार
की हो पाएं ,वो भी ,कुछ पल को निश्चिंत
की हो पाएं,वो भी,कुछ पल को बेफिक्र
बांट लें यदि हम उनकी,आधी भी फिक्र
कीजिए विश्वास,वो दिल से हंस पाएंगे
जब समझने वाले,कुछ अनमोल, रिश्तों को पाएंगे
जीवन है तो बसंत और पतझड़ तो आएंगे
पर बात तब बनेगी,जब हर कदम साथ निभायेंगे
समझिए,वो भी समझेंगे,यही तो विश्वास है
बांधती एक सच्ची डोर,समझ ऐसी आस है.
© Pri Poetry 💫
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