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बचपन से अब तक...
बचपन से अब तक
जब भी चाहा थामना हाथ किसका
नियति को मंजूर हो न सका
रिश्ता दोस्तीवाला हो या प्यार वाला या हो अपनेपन का
सब छूट गया कुछ ही पलों में उम्र का साझा रह गया बाकी
कभी बचपन छूट गया दोस्त ढूंढते ढूंढते
क्योंकि मेरे चेहरे के मासूमियत से ज्यादा
शरीर के तकलीफे दिखे उन्हें
गलती मेरी नहीं पर थी शरीर की बीमारी का
पर बच्चे थे उनसे क्या उम्मीद करूं बड़प्पन की
बड़ी हुई तो उम्र से ज्यादा बड़ा बना दिया गया
कभी जिम्मेदारी के नाम, कभी हालात के नाम
ना बचपन जीने दिया गया मन से
ना किशोरावस्था को खुलके मिलने दिया गया
अब बड़े होने पर ताना दिया जाता है
जता कर क्यों तू खुद नहीं करती अपना काम
बचपन से बांध कर बेड़ियां अब अचानक आजादी का याद आता है
गलत हो जाए गलती से भी तो ताना कसा जाए हज़ार
ये जिंदगी है अपनो की देन कर्ज के रूप में
ना चाही थी कभी ऐसी जिंदगी मैने
खुश रहना हक है तो सभिका पर मिल न पाया शौक से
ये पैदाइशी निर्णायक है किसे कौनसा हक मिले
ऐसी है समाज के दोगले रीत और उनके खोखलापन
ऐसी है जिंदगी बचपन से अब तक।
© Dibyashree