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प्रेम की ख़ोज में, हम से “ मैं ” हो गई...
प्रेम करना एक बात है और निभाना दूसरी,
दोनों ही अलग हैं एक दूसरे से,बिल्कुल अलग.
लोग आते हैं प्रेम सिखाकर चले जाते हैं,
इसी बीच कभी-२ मर जाते हैं जज़्बात..
लेकिन प्रेम कभी नहीं मरता,तुम्हें जिन्दा रखता है वो,
वो लोग ये तो बता देते हैं कि प्रेम कैसे होता है
और ये भी समझा जाते हैं कि प्रेम क्या है,
लेकिन प्रेम को निभाना नहीं बताते..
शायद उन्हें भी नहीं आता होता है..
तभी तो छोड़ जाते हैं अधूरा...तुम्हें भी और तुम्हारे प्रेम को भी..
यह स्वयं ही सीखना पड़ता है... वही तो है प्रेम की खोज़,
प्रेमी से अलग होकर ही ख़ोज पाते हो प्रेम को..
याद करो और अनुभूति हो जाए..
आँखें बंद करो और दर्शन हो जाएं..
नाम लो और होंठ मुस्कुरा जाएं..
प्रार्थना करो और उनका ध्यान स्वतः ही आ जाए..
ना कोई अभिलाषा हो,ना कोई कामना..
बस उनका कल्याण सोचना और सिर्फ कल्याण सोचना,
ईश्वर के चरणों में अर्पण कर देना खुद को,विचारों को..
मुझे लगता है कि यही प्रारम्भ है प्रेम का..!!
© आकांक्षा मगन "सरस्वती"