...

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खोजता हूं
इस जहां में होने की वजह खोजता हूं,
इस ज़माने में अपनी जगह खोजता हूं.

है कहती ये दुनिया झांकने को सबसे,
उस वास्ते मैं अपनी गिरह खोजता हूं.

भरा है मसीहों से वक्त आजकल का,
इसमें बशर मैं अपनी तरह खोजता हूं.

बस ख़ून से हैं अपने मगर दिल से नहीं,
इस अहलदगी में अपने गुनह खोजता हूं.

दिन गुज़रे अंगारे-सी बैचैनी की छांव में,
सुकून के लिए मैं शब-ए-मह खोजता हूं.

है 'ज़र्फ़' अब झूठ हर सच की जगह पर,
इस झूठ में मैं सच्चाई की तह खोजता हूं.
© अंकित प्रियदर्शी 'ज़र्फ़'

गिरह - जेब (pocket)
बशर - आदमी, इंसान (human)
अहलदगी - अलगाव (separation)
गुनह - गुनाह, अपराध (crime)
शब ए मह - चांदनी रात (moonlit night)
एक और ग़ज़ल की पेशकश.....
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