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मीत-सखा अंजान हो गए
मीत-सखा अंजान हो गए

अब दीवारों के कान हो गए,
घर सब ये सुनसान हो गए।
सूनी डगर है मन्जिल मुश्किल,
मीत-सखा अंजान हो गए।

स्वप्न बने सावन के झूले,
अब साथी हाथ बढ़ाना भूले।
अनजाना सा है डर ये सबको,
मीत न कोई नभ को छू ले।

खुशियों के दिन साथ सभी थे,
अब क्यों अंतर्ध्यान हो गए।
सूनी डगर है मन्जिल मुश्किल,
मीत-सखा अंजान हो गए।

ये चेहरे सुर्ख गुलाबी लगते,
नयना प्यासे भाग न जगते।
तकलीफ़ उन्हें क्यों खुश है दुनिया,
इसी सोच में दिन भर थकते।

मन्दिर-मस्जिद के झगड़े में
जब अपने ही कुर्बान हो गए।
सूनी डगर है मन्जिल मुश्किल,
मीत-सखा अंजान हो गए।

लगा है देखो वक्त खिसकने,
ढलता यौवन लगा सिसकने।
पर शैतानों को शर्म कहाँ है,
भूल गया इन्सान झिझकने।

अब नेकी के दिन चले गए हैं,
बदी के सब अहसान हो गए।
सूनी डगर है मन्जिल मुश्किल,
मीत-सखा अंजान हो गए।

आज समय की चाल तेज़ है,
सच से अब सबको परहेज़ है।
सब शौक धरे रह गए हजारों,
यहाँ शैतानों के सजे सेज हैं।

जिसकी लाठी भैंस उसी की,
अब बाहुबली प्रधान हो गए।
सूनी डगर है मन्जिल मुश्किल,
मीत-सखा अंजान हो गए।

भूपेन्द्र डोंगरियाल
17/07/2020


© भूपेन्द्र डोंगरियाल