...

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छाया
#छाया की कहानी
रात का पहरा जैसे जैसे बढ़ रहा था,
मन अकेलेपन से था बौखलाया|
देख के सुने आँगन को आँखे भर आयी,
आँगन में पोते का खेलना याद आया |

आज सुबह ही तो गए बहु -बेटा शहर,
े घर में रह गयी केवल मेरी वृद्ध काया |
पत्नी ने साथ छोड़ दिया वक़्त से पहले ही,
सोच पुरानी स्मृतियों को मन भर आया |

रोते रोते जाने कब आँख लग गयी,
एक छाया को अपने सिरहाने पाया |
मैंने पूछा तुम हो कौन यहाँ क्यों आए े,
बोला तुमसे मिलने ही तुम्हारा बिम्ब आया |ैँ

लोगों को लगता वो अकेले ही चल रहे,
हर घड़ी सबके साथ रहती हैँ उसकी साया |
इस दुनियां में खुद को तन्हा मानते सब,
लेकिन कभी ना साथ छोड़ती उसकी अपनी छाया |

मैंने देखा हैँ तुम्हें बचपने से,
धूप में निहारते थे कैसे अपनी छाया
खेलते थे आँख -मिचौली साथ मेरे,
बचपन छूटा यौवन का कब दौर आया |

मैं साखी हूँ तुम्हारे होंसले का,
कभी कठिनाइयों में तुम्हें रोते भी पाया |
चढ़ते देखा हैँ तुम्हें बुलंदियों पे,
कड़ी मेहनत से ये बड़ा सा घर बनाया |

तुम अकेले नहीं हो इस जहां में,
आना जाना अपनों का भी होता मोह माया |
एकांत पर के मुझसे ग़म बाँट लेना,
सदा रहती तुम्हारे साथ तुम्हारी छाया ||



© shweta Singh