...

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आख़री मुलाक़ात
मैं
तुम्हारी दुकान पर आई थी,
सरका पल्लू ठीक किया,
थोड़ी सी घबराई थीं।
अब तुम नामेहरम हो,
खुद को समझाया मैंने,
और फिर बेफिक्र होकर
कुछ फरमाया मैंने।
सुनों
ये बिंदी के पत्ते कि क्या क़ीमत बताई,
उसकी घबराई आँखे थीं जो कुछ डबडबाई,

लो तुम रख लो इसे,
न करो अब मोल भाव इसका।
अब नाम का रिश्ता नहीं,
पर कभी लगाव तो था।

बेमतलब सी बातें न करों,
यहाँ मेरा भी कुछ मान हैं।
अब वो मोहब्बत नहीं तुमसे
पर मेरे मोहल्ले में बस यहीं दुकान है।

न में प्रेमी हूँ, न साथी हूँ
मैं बस दुकानदार हूँ,
इससे एहसान न समझ
मैं तो तेरा कर्ज़दार हूँ।

मेरा तो कुछ अपना नहीं
मैंने क्या दिया होगा तुझे
मेरे रक़ीब को सवाँर अब,
तू मेरी चिंता छोड़ दे।
किसी का तो अपना बन,
किसी का तो साथ दे,
ये क़ीमत बिंदिया की रख,
न मुझको अब आवाज़ दे।

झटका पल्लु,
कुछ मुड़ी, लहराई
कदम थार्थरायें मेरे
ठंडी आग सी धधक आयी।
बिंदिया तो बस बहाना थीं,
मक़सद तो झलक पाना थी।

माथे से लगा फिर उतार देती हूँ,
आखरी की चार हैं,
बटवे में छुपा लेती हूँ,
गोंद फ़ीकी पढने लगी शायद,
या पसीनें की बईमानी हैं
संभाल के इसलिए रखी हैं
ये आख़री मुलाक़ात की निशानी हैं।















© maniemo