...

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हताश
खुद को पिंजरे से आजाद कर,
उड़ चली मैं लेकर गगन में ये पर
भरी आकाश में एक ऊंची उड़ान,
बढ़ाने अपना स्वाभिमान ।
कि इन दरिंदों ने मुझे जकड़ लिया,
मेरे परों को नोच मुझे पकड़ लिया
मुझ से मेरा ही हक छीन लिया
और मुझे लहू से रंग दिया।
मुझे इतना सताया,
और एक बार इस पीड़ा का कारण भी ना बताया
आंखों में कुछ नमी लिए,
हताश बेदिल लिए किसी कोने में
खुद से पूछते हुए,
क्या इस कलयुग में भी श्रीराम है?
क्या किसी द्रौपदी की रक्षा के लिए उसके मित्र श्याम है?
मेघों को भी लज्जा आई,
सूर्य की किरणें भी शरमाई,
धोने धरती का महापाप,
आ गए इंद्रराज आप ?
वर्षा की बूंदे लाई नई उमंग,
पर क्या था अब मेरा देह मेरे संग !
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