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जो मैं एक किताब होती..
जो मैं एक किताब होती
स्वयं ही स्वयं को पढ़ पाती
क्रुद्ध और विवादित विचारों को
बार बार ना कभी दोहराती
आग उगलते शब्दों को
पंक्ति में आने से रोक पाती
जो मैं एक किताब होती, तो
इतनी सी बात समझ पाती।

आस पास के मूक भाव
सुगंध बन कागज़ पर बिखेर जाती
अधूरी बातों को खालीपन में
गहराई तक का स्पर्श दे जाती
किसी दोष से रिक्त होते लेखक
पाठकों की प्रेरणा बन जाती
जो मैं एक किताब होती, तो
इतनी सी बात समझ पाती।

पथिक जो थक चुका संसार में
मार्ग उसका कुछ प्रशस्त कर पाती
आशय से भिन्न कई रिश्तों को
अपनी कोख से जन्म दे पाती
जैसे बंधपत्र से बाँध कर
मैं मानवता को सहेज रख पाती
जो मैं एक किताब होती, तो
इतनी सी बात समझ पाती।

समुद्र की उदारता दामिनी की चंचलता
सब स्वयं में ही समेट कर दिखाती
अस्त्र समर्पण होता मेरा तो फिर
प्रति क्षण प्रेम का संचार कर पाती
मुझसे ही सब को सिखलाई मिलती
सबसे मैं भी सब कुछ सीख पाती
जो मैं एक किताब होती, तो
रंग नये कुछ और जीवन में लाती।
जो मैं एक किताब होती, तो
बस! इतनी सी बात समझ पाती।।
©️इन्दु तोमर ✍️

© InduTomar