...

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अब मैं जरा कम लिखती हूँ
कहते हैं सब मैं तो गम लिखती हूँ
नैनों को, दरिया को सम लिखती हूँ

हर लम्हा रेत, हर इश्क़ को फ़साना
गुमनाम रात को हमदम लिखती हूँ

तश्नगी में छुपा है ये बादल इसलिए
छलकती आँखों को रम लिखती हूँ

गुज़र गई उम्र जिस आईने में सारी
अब उसी आईने को खम लिखती हूँ

कोई छीन ना ले मेरा उजाला मुझसे
उजले सूरज को भी तम लिखती हूँ

निहारे जिस्म कोई, कोई रूह तलाशे
मैं जिस्मों को, रूहों को" हम" लिखती हूँ

कोई ढूंढे न ठिकाना मेरा अश' आरों में
इसीलिए अब मैं ज़रा कम लिखती हूँ
© सोनी