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बाँदा पत्थर
बांदा से ये पत्थर आज भी पूरे विश्व में और ज्यादातर खाड़ी देशों में जाता हैं. इसकी मांग ईरान में बहुत ज्यादा हैं और उसी की वजह से बंदी की कगार पर पहुच चुके शजर को दुबारा बाजार मिल गया है.

कभी इस पत्थर को निकालने के लिए कारीगर बरसात में केन नदी के किनारे कैंप लगाते थे. नदी से पत्थर को पहले निकालना फिर उसको तराशना और फिर उसको मनचाही रूप में ढालना ये सब छोटे छोटे कारखानों में होता था. पीढियों से ये हुनर चला आ रहा था. राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हस्तशिल्पी द्वारका प्रसाद सोनी के अनुसार पहले पत्थर की कटाई और घिसाई होती हैं. उसके बाद इसको मनचाहे आकर में ढाल दिया जाता है. फिर पॉलिश कर के चमक लायी जाती हैं. शजर को नया रूप देने में अभी भी कोई बहुत विकास नयी हुआ हैं. काम हाथ से और मात्र एक घिसाई मशीन से होता है. ऐसे यूनिट्स को बांदा में कारखाना कहते हैं. तैयार शजर पत्थर को क्वालिटी के हिसाब से 1,2,3ग्रेड में रखा जाता है और फिर उसकी कीमत लगायी जाती हैं. कीमत सोने चांदी में जड़ने के बाद और बढ़ जाती हैं.

लेकिन आज अपने ही घर बांदा में शजर पत्थर बेघर सा हो गया हैं. कद्रदान बहुत हैं लेकिन सीधे बेचने का कोई तरीका नहीं हैं इसीलिए मुनाफा घटता गया और लोग ये काम छोड़ते गए. द्वारका प्रसाद सोनी जो बांदा में आज भी शजर पत्थर को तराशने का काम करते हैं बताते हैं कि ज्यादा मुनाफा तो बिचौलिए ले जाते हैं. यहां से सौ रुपये की चीज वो विदेशी मार्किट में सौ डालर में बेचते हैं. कुछ साल पहले तक बांदा में 34 ऐसे कारखाने थे जहां शजर पत्थर को तराशा जाता था, लेकिन अब कुल चार बचे हैं. सोनी बताते हैं की जब मार्केट ही नहीं है तो अच्छा दाम कैसे मिले. कारीगर धीरे धीरे काम छोड़ रहे हैं. खुद सोनी को कई पुरस्कार राज्य और केंद्र सरकार से मिल चुके हैं और वो विदेशो में भी भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं, लेकिन उनकी नजर में भी जब तक माल बेचने की व्यवस्था नहीं ठीक होगी, शजर जैसे बेशकीमती पत्थर को संवारने वालो का हाल नहीं सुधरेगा. सोनी के घर की दीवारों पर पुरस्कार टंगे हैं लेकिन शजर पत्थर की तरह उसके व्यवसायी गुम होते जा रहे हैं