...

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एक स्वप्न...
अंधेरी शाम... सना अप्पी हम कंहा जा रहे हैं? नया शहर है मुझे नहीं पता, तुम जानती होगी.. हमम.. रूको मैं कृष्णा से संपर्क करती हूँ वो अभी कंही व्यस्त है । अच्छा चलो साथ चलते हैं.. पानी का बहाव तेज होते जा रहा है, बारिश की तेज रफ़्तार और बादल का कड़कना भी... शायरा ये आखिरी छोर है हमम... जानती हूं... मुझे डर लग रहा है, तुम पीछे रूको, मैं आगे बढ़ती हूं... पर अप्पी... ओहो रूको तुम पीछे आओ मेरे। वो आखिरी मकां था, सीढ़ियां टूटी थी, दीवारें हिल रही थी.. अप्पी की आकृति अदृश्य हो जाती है। शायरा चलो अरे बाबा चलो, ये हाथ अनम का था... लेकिन अनम उपर छत पर जाने का कोई रास्ता नहीं और ये किसी अज़नबी का घर मालूम पड़ता है ..हम यहां कैसे..? रूको तुम.. मेरा हाथ पकड़ वो छत पर लेकर चली जाती है, खाट पर हम दोनों लेटे होते हैं साथ में एक प्यारी सी बच्ची भी... अनम ये बच्ची किसकी है? शायद... इस उभरते शैलाब का हिस्सा। तुम रूको ये क्या कर रही हो इतने खराब मौसम में भी तस्वीर निकालनी है तुम्हें.. हां देखो न आसमान कितना स्याह है और ये टिमटिमाते तारे ... हमम... हां और ये शैलाब से भरा मंजर भी जिसका न कोई छोर न सवेरा।
ये देखो पूरी गली में कमर भर पानी लगा है और इतने अंधेरे में ये रोशनी कंहा से आ रही है...? रामिश बहुत बीमार है अब्बू ख्याल रख रहे है उसका। मैं फिर से किसी खाट पर लेटी अपनी दुनिया में गुम हूं... शायरा ये देखो तुमने तस्वीर लेने को मना किया था न इस बच्ची के आगे तुम्हारी मुस्कान कितनी प्यारी है... राशिद तुम कब आए ... तुम्हें कैमरो में कैद कर पाना मुश्किल था शायरा उस रात... पर तुम्हे आखों में बसा लेना मेरा ताउम्र का सुकून...
© श्वेता_साहिबा